चोटी की पकड़–56

"जमादार तो हम हैं," रुस्तम ने स्वर चढ़ाकर कहा, "हमारा कौन-सा क़सूर है?"


अड़गड़े में पहुँचकर मुन्ना ने कहा, "जटाशंकर, क्या तुम अब भी हमको चाहते हो?"

जटाशंकर राँड की तरह रोने लगे।

"एक बात" मुन्ना ने कहा, "तुम मुझे चाहते हो या जमादारी?"

"अरी, बड़ी बेइज्जती हुई; हमारी जमादारी रहने दे।"

"अब तुम समझे, हम समझ जाते हैं, कौन कैसा है। तुम हमारी तरह उतर नहीं सकते, यह तुम्हारा खयाल था; मगर तुम इतना उतर जाओगे कि यहाँ जमना दुश्वार होगा। 

जब किसी को पकड़ो तब उसी को पकड़े रहो, यह क़ायदा है। तुम समझे थे, मैं तुम्हारी रखेली की तरह रहूँगी; अपनी स्त्री बनाकर तुम मुझको खुश किए रहोगे।


 मैं जैसी औरत हूँ, मैं तुम्हें रखवाले की ही तरह रख सकती हूँ; मगर राजा ही बनाए रहती। यह न समझना कि मैं गरीब हूँ। मैंने कहा, मैं रानी है। 

तुम्हारा यह खयाल कि एक औरत को रखेली बनाकर रहनेवाला वैसा ही ब्राह्राण है जसे तुम, बिलकुल गलत है। हमारे दिल में ब्राह्राण का सम्मान है, पर चैतन्यदेव-जस ब्राह्राण का, जो बाद को वैष्णव हो गए, और सबको अपनी तरह का आदर दिया। 

मैं वैष्णव हूँ। तुम पर मुझे प्यार नहीं होता, दया आती है। तुम इतने बड़े मूर्ख हो कि अपनी तरफ से कुछ समझ नहीं सकते। खजाने का जो जमादार होगा, कुछ दिनों में उसकी जान की आफत आएगी।"

जमादार काँपे। आँखों से तरह-तरह की शंकाएँ, भय, उद्वेग, पाप, अत्याचार, क्षुद्रता, हृदयहीनता आदि निकल पड़ी। राज लेने के लिए मित्र बनने की कोशिश करते हुए कहा, "क्यों?"

"तुम हमारे आदमी हो?"

जमादार की जान चोटी पर आ गई। कहा, "अब जो कुछ भी हो, हम हुजूर के आदमी हैं।"

"अब तुम समझे। अच्छा बताओ, अगर खज़ाने का रुपया चुरा गया हो?"

जटाशंकर को जान पड़ा, वज्र टूटा; धड़ाम से गिर पड़े, "अब सही-सही मरा।-मुझको भगा दो। दया करो, दया करो, देवी, कहीं का नहीं रहा।"

"यही रुपया तुमको देना चाहती हैं, लेकिन तुमको हमारी जाति और हमारी दासता लेनी पड़ेगी।"

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